Wednesday, November 04, 2015

दुवा

दुवा में सज़ा देने वाले तुझे सज़ा में दुवा दे रहा हूँ
हर दुवा हो पूरी तेरी, और तू दुवा में मुझे भूल जाए
ये सज़ा है तेरी, ये दुवा है मेरी..
आशियाने का सराब दिखा कर दश्त में छोड़ देने वाले,
तेरा आशियान हो गुलशन, जहाँसे मग़फेरत हो मेरा सफर
ये सज़ा है तेरी, ये दुवा है मेरी..
मेरी परस्तिश को साज़िश का नाम देने वाले,
हो हर साज़िश तेरी मुकम्मल, तू चाह कर भी कभी हार ना पाए
ये सज़ा है तेरी, ये दुवा है मेरी..
किसी फरेबी से सीखकर मुझसे फरेब करने वाले,
फरेब तुझसे ना कर पाए कोई, और किसीसे तू वफा कर ना पाए
ये सज़ा है तेरी, ये दुवा है मेरी..
मेरी खताओं का इन्साफ मेरी वफाओं से करने वाले,
हो मुआफ हर खता तेरी, तू सज़ा भी मांग ना पाए
ये सज़ा है तेरी, ये दुवा है मेरी..
डूबने का शौक दिला कर मुझे, साहिल से दूर जाने वाले,
किसी किनारे पर मेरी लाश मिल ना जाए, तू कहीं डूब ना पाए
ये सज़ा है तेरी, ये दुवा है मेरी..
मेरी चीख पुकार सुनकर भी ना जागने वाले,
ना मैं कुछ कह सकू, ना तू कुछ सुन पाए
मैं बेजुबान हो जाऊ, और तू जाग जाए
ये सज़ा है तेरी, ये दुवा है मेरी..
कभी मुश्ताक कभी बेज़ार रह चुके हैं दोनो,
कभी आशना थे दोनो ये भूल चुके हैं दोनो..
ना हो सामना दोनो का ऐसे और कंबख्तों से
ना तुझसा मिले मुझे और कोई, ना मुझसा कोई तुझे मिल पाए
ये सज़ा है हमारी, ये दुवा है मेरी..

Tuesday, October 06, 2015

और कुछ?

डर कमजोरी से नही दोस्त
अपनी ताकद से लगता है..
अक्सर ताकद या तो बोझ उठाने के लिए होती है
या कुछ तोड़ने के काम आती है
वरना जोडने के लिए तो बस प्यार ही काफी है

डर बेमानी से नही दोस्त
वादों से लगता है..
बेमानी तो फिर भी पीछे छूट जाती है
टूटे हुए वादे
अक्सर पैरों में चुभते रहते हैं

डर रास्तों से नही दोस्त
मंंज़िलों से लगता है
रास्ते तो हर सुख दुख के साथी हैं
उंचे नीचे हर कदम पर साथ हैं
वह मंज़िल है कि पराई है
न जाने वहां धूप है या कोई परछाई है
वो है भी या है ही नही..

आंसू अच्छे हैं
बहते हैं तो काफी कुछ साफ कर देेते हैं
धुंधली आंखो से लेकर, मन के काले बादलों तक
और रह जाता है एक भीगा बिल्ला जवाब
जब आवाज़ आती है..
और कुछ?

Friday, September 11, 2015

सरसों के दाने

सरसों के दाने फिर याद आये
जिन्हे ले आने भेजा था बुद्ध ने कभी
यूं तो हर बार आ जाते हैं
आज कुछ ज्यादा याद आये

इतना साहस कहां से लाया होगा उसने
कैसे समझाया होगा उस माँ को..
यहाँ सदियाँ बीत गयी
हम अपने आंसू रोक न पाये
लाख समझाए सरसों के दाने.. पर मेरे हिस्से ही इतने क्यों आये.. इससे
आगे बढ़ ना पाये

कितनी आकर गई, कोई हिसाब नही
और कितनी आनी है यह भी कौन जाने
बस इतना सा सच है, ये जो लहरे उठी हैं
कुछ मेरे आगे, कुछ मेरे पिछे, कुछ जो मेरे साथ भी हैं
हम सब को टकराना है किनारे से
थमने का तो विकल्प ही नही
जो रुक गई वह लहर ही क्या
सो किनारा अटल है

सवाल बस इतनासा है.. कि क्या हवा की हर अटखेली पर
उछलते कूदते रोते बिलगते बढते जाए
या फिर उस बुद्ध की तरह तटस्थ होकर
हवाओं से किनारे तक के सत्य को बस देखते जाए
लहर के टुटे बिना कैसे यह थपेटे सहते जाए

Wednesday, March 11, 2015

झंझीर लिखता हूँ

रस्मों के पत्थरों पर रिश्तों के बोझ लिखता हूँ
रोज जिंदगी पर एक नयी झंझीर लिखता हूँ

इतनी सारी कहानियाँ
न जाने कितने रास्तो पर कितने मोड ले लेती
पता नही क्यों हर बार
एक ही कहानी नये कागज पर लिखता हूँ

कलम से टपकते हुए शोले
रोज देखता हूँ
पानी की सतेह पर मगर
बस फर्याद लिखता हूँ

कभी मुल्कों पर कभी समाजों पर
तो कभी अपने घर पर
कभी कभी तो कोई गाली
अपने झमीर पर लिखता हूँ

आंखो देखी मानता हूँ,
जो देखता हूँ वो कहता हूँ
जाने फिरभी लोग ये कहते, उल्टा सीधा लिखता हूँ..

Friday, December 07, 2012

चाशनी..

निगाहो में जिसके सहर रहती है, वो रोशनी हो तुम,
लबों से लब्ज़ो में मिठास भरती है, वो चाशनी हो तुम..

मासूम वक़्त को फिर ले आती, एक सुहानी मुस्कान हो तुम,
कभी सयानी, कभी दिवानी, कभी लगती नादान हो तुम..

पेड़ के हर पत्ते से बचकर मुझे छुने आयी, एक अनछुई किरन हो तुम,
कभी पत्थरों में फुलों की उम्मीद जगाती, बारिश की पहली सीलन हो तुम..

जिसने मेहकाया है इस गुलशन को आजकल, वो संदल हो तुम,
मेरी कलम से शरारत करती, पर्दानशी, हसीन गज़ल हो तुम..

जहाँ मेरे साथ थम गया था वक़्त, उस मोड पर मिले हो तुम,
शायद वक़्त को इंतजार था तुम्हारा, इससे पहले भी कहीं मिले हो तुम..

- मेरी नादानगी

Friday, October 26, 2012

हम तो फिरभी शराब पीते हैं

लोग लोगों का खून पीते हैं..
हम तो फिरभी शराब पीते हैं...

यूं तो वो हमें बड़ा झूठा कहते हैं..
और खुद कहते हैं कि खुशीसे जीते हैं..

उन्हें दीवारों का शौक़ बड़ा है..
हम तो आसमां भी हटाके जीते हैं..

वो बेखबर जाम भरते रहते हैं..
हम तो उनकी निगाहों से पीते हैं..

यूं तो रोज थोडा थोडा मरते हैं..
जीते हैं मगर जबभी पीते हैं..  

हम उन ज़ख्मों को अक्सर गिनते हैं..
जिन्हे वो माफी के धागों से सीते हैं..

जीते हैं कि जिंदा हैं इसलिए नादान..
वरना कौन बताए कि क्यों जीते हैं..

- मेरी नादानगी.

Sunday, January 22, 2012

Red

Running through my veins,
Finding space to breathe,
Within my embrace..
You are painting me red...
-Rahul.