Friday, September 11, 2015

सरसों के दाने

सरसों के दाने फिर याद आये
जिन्हे ले आने भेजा था बुद्ध ने कभी
यूं तो हर बार आ जाते हैं
आज कुछ ज्यादा याद आये

इतना साहस कहां से लाया होगा उसने
कैसे समझाया होगा उस माँ को..
यहाँ सदियाँ बीत गयी
हम अपने आंसू रोक न पाये
लाख समझाए सरसों के दाने.. पर मेरे हिस्से ही इतने क्यों आये.. इससे
आगे बढ़ ना पाये

कितनी आकर गई, कोई हिसाब नही
और कितनी आनी है यह भी कौन जाने
बस इतना सा सच है, ये जो लहरे उठी हैं
कुछ मेरे आगे, कुछ मेरे पिछे, कुछ जो मेरे साथ भी हैं
हम सब को टकराना है किनारे से
थमने का तो विकल्प ही नही
जो रुक गई वह लहर ही क्या
सो किनारा अटल है

सवाल बस इतनासा है.. कि क्या हवा की हर अटखेली पर
उछलते कूदते रोते बिलगते बढते जाए
या फिर उस बुद्ध की तरह तटस्थ होकर
हवाओं से किनारे तक के सत्य को बस देखते जाए
लहर के टुटे बिना कैसे यह थपेटे सहते जाए

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