Wednesday, March 11, 2015

झंझीर लिखता हूँ

रस्मों के पत्थरों पर रिश्तों के बोझ लिखता हूँ
रोज जिंदगी पर एक नयी झंझीर लिखता हूँ

इतनी सारी कहानियाँ
न जाने कितने रास्तो पर कितने मोड ले लेती
पता नही क्यों हर बार
एक ही कहानी नये कागज पर लिखता हूँ

कलम से टपकते हुए शोले
रोज देखता हूँ
पानी की सतेह पर मगर
बस फर्याद लिखता हूँ

कभी मुल्कों पर कभी समाजों पर
तो कभी अपने घर पर
कभी कभी तो कोई गाली
अपने झमीर पर लिखता हूँ

आंखो देखी मानता हूँ,
जो देखता हूँ वो कहता हूँ
जाने फिरभी लोग ये कहते, उल्टा सीधा लिखता हूँ..

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